मित्रो पिछले १२ -१४ साल से मै पहाड़ से भयंकर पलायन देख रहा हूँ
...हालाँकि यह मेरे अनुमान से लगभग ४० सालों से निरन्तर शुरू है ...लेकिन इस अवधि में इसने विकराल रूप धारण किया है ..अपनी शान पर अडिग रहने वाले और प्राकृतिक सौंदर्य से लबालब पहाड़ की इस दुर्गति पर मै इतना व्यथित हूँ कि कभी कभी खुद को महामूर्ख समझने लगता हूँ .. हम फेसबुक शहरी ऐशो-आराम और पहाड़ की सुंदरता/सबलता पर व्यथाएँ -कथाएं तो बहुत सुनाते रहेंगे ... मगर .. अब पहाड़ को जगाने का वक्त आ गया है… अभी नहीं तो कभी नहीं ....!!!
क्यूंकि जिस पायदान पर मुझ जैसे या मेरे हमउम्र "भैजी /भुला " हैं उनकी पीठ पर पहाड़ की संस्कृति /तकनीक एवं तजुर्बा है तो गोद में शहरीकरण के विलेय में विलीन होती थर्ड जनरेसन ...!!! हमने अगर संवाहक की भूमिका निभाने में कसर छोड़ दी तो हम अपनी मा की संस्कृति और पिता की परिवरिश गवाने के अपराधी तो होंगे ही ....
साथ में कसूरवार होंगे अपनी उस मौत के ..जो हमें अपने "भै-बंधु "के बीच शरीर त्यागने के बजाय आलिशान हॉस्पिटल के कमरे या .... अपनी ही जोड़ी दौलत से बने घर के बच्चो के "दादाजी वाले कमरे " में आएगी ...!!!
..इसी क्रम में बहुत सवाल लिखूंगा ..कुछ समाधान भी हैं ..!!!आप भी जरुर सोचियेगा ....!!!